Prada और कोल्हापुरी चप्पल विवाद: फैशन शो में भारतीय सांस्कृतिक पहचान और वैश्विक फैशन की कहानी
Prada और कोल्हापुरी चप्पल विवाद: फैशन शो में भारतीय सांस्कृतिक पहचान और वैश्विक फैशन की कहानी
विवाद का आरंभ: प्रमुख तथ्य
मिलान फैशन वीक 2025 (Spring/Summer 2026) में Prada ने अपने नवीनतम पुरुषों के कलेक्शन में खुली उँगलियों (open-toe) वाले चमड़े के सैंडल पेश किए, जिन्हें उन्होंने केवल “leather flat sandals” (चमड़े के फ्लैट सैंडल) के रूप में वर्णित किया।
लेकिन यह सैंडल डिज़ाइन, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में सदियों से बनाए जाने वाले पारंपरिक भारतीय कोल्हापुरी चप्पलों से बेहद मिलती जुलती थी. जिसमें टी-स्टैप और बुनाई का विशिष्ट डिजाइन होता है।
शुरू में ब्रांड ने भारतीय संस्कृति के प्रभाव को स्वीकार नहीं किया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर आलोचना हुई।
आलोचनाओं के बाद Prada ने माना कि उनके डिजाइन कोल्हापुरी चप्पलों से प्रभावित थे।
यह मामला एक बार फिर सांस्कृतिक उधार (Cultural Appropriation) बनाम सांस्कृतिक प्रशंसा (Cultural Appreciation) की बहस को उजागर करता है।
यह लेख इस विवाद की पृष्ठभूमि, इसके प्रभाव, और भविष्य के लिए इसके निहितार्थों पर प्रकाश डालता है।
परिचय
23 जून 2025 को मिलान में आयोजित Prada के मेन्स स्प्रिंग-समर 2026 फैशन शो ने एक अप्रत्याशित विवाद को जन्म दिया। इस शो में प्रदर्शित चमड़े के सैंडल, जो भारत की पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पलों से हूबहू मिलते-जुलते थे, ने भारतीय फैशन समुदाय और कारीगरों के बीच तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया। प्राडा ने अपने शो नोट्स में इन सैंडलों को केवल “लेदर सैंडल्स” के रूप में वर्णित किया, बिना भारत या कोल्हापुरी चप्पलों का कोई उल्लेख किए। इसने सांस्कृतिक विनियोग (कल्चरल अप्रोप्रिएशन) और भारतीय शिल्प कौशल को उचित मान्यता न देने के आरोपों को हवा दी। हालांकि, इस कलेक्शन को लेकर सोशल मीडिया और फैशन जगत में भारी आलोचना हुई, क्योंकि प्रादा ने शुरू में इस डिजाइन में भारतीय संस्कृति के योगदान को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया था। भारी आलोचना और सोशल मीडिया पर व्यापक विरोध के बाद, जब आलोचनाएँ बढ़ीं तो प्राडा ने अंततः स्वीकार किया कि उनके सैंडल भारत की सदियों पुरानी कोल्हापुरी चप्पलों से प्रेरित और प्रभावित थे।
यह घटना एक बार फिर सांस्कृतिक उधार (Cultural Appropriation) और सांस्कृतिक प्रशंसा (Cultural Appreciation) के बीच के अंतर को उजागर करती है। जहाँ एक ओर वैश्विक ब्रांड्स विभिन्न संस्कृतियों से प्रेरणा लेते हैं, वहीं दूसरी ओर उन पर मूल संस्कृति को क्रेडिट न देने के आरोप लगते हैं।
कोल्हापुरी चप्पल: भारत की सांस्कृतिक धरोहर, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि
कोल्हापुरी चप्पल महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में बनने वाला एक हस्तनिर्मित चमड़े का फुटवेयर है, जिसकी उत्पत्ति 12वीं शताब्दी में मानी जाती है। यह चप्पल न केवल अपनी मजबूती और आराम के लिए जानी जाती है, बल्कि यह महाराष्ट्र के सांस्कृतिक ताने-बाने का एक अभिन्न हिस्सा भी है। इसकी खासियत इसकी पतली संरचना, खुला पंजा, और पैर की अंगुली में पहने जाने वाला छल्ला है, जो इसे एक विशिष्ट पहचान देता है। 2019 में भारत सरकार ने इसे भौगोलिक संकेतक (GI) टैग प्रदान किया, जो इसकी उत्पत्ति और प्रामाणिकता को प्रमाणित करता है। जिससे यह कानूनन कोल्हापुर की पहचान से जुड़ा हुआ माना गया। इनका इतिहास सदियों पुराना है और ये भारतीय ग्रामीण संस्कृति का प्रतीक मानी जाती हैं।
ये चप्पलें स्थानीय कारीगरों द्वारा प्राकृतिक चमड़े और न्यूनतम मशीनरी के उपयोग से बनाई जाती हैं, ये चप्पलें हाथ से बनाई जाती हैं और प्राकृतिक चमड़े व नक्काशीदार डिजाइन के लिए प्रसिद्ध हैं, इसकी निर्माण प्रक्रिया में रंगाई, कटिंग, सिलाई, फिनिशिंग तक लगभग 6 सप्ताह लगते हैं, और यह पारंपरिक रूप से भैंस की खाल से बनाया जाता रहा है। जिससे ये पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ होती हैं। कोल्हापुर, अथानी, निप्पणी, और मडभवी जैसे क्षेत्रों में हजारों कारीगर परिवार इस शिल्प पर निर्भर हैं। हालांकि, इन कारीगरों को उनके मेहनताने के मुकाबले बहुत कम आय प्राप्त होती है, जहां एक जोड़ी चप्पल की कीमत 250 से 400 रुपये के बीच होती है, जबकि मध्यस्थ और खुदरा विक्रेता इसे 1,500 से 4,000 रुपये में बेचते हैं।
कोल्हापुर में प्रतिवर्ष लगभग 6 लाख जोड़े का उत्पादन होता है, जिसमें 1 लाख से ज़्यादा कारीगर प्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं। यह हस्तशिल्प करीब ₹90 करोड़ (9 करोड़ रुपये) मूल्य है, जिसमें 30% निर्यात शामिल है। लेकिन हाल की दशकों में बाजार संकट, कच्चा माल, पर्यावरण नियम और प्रतिशोधी नकल प्रथाओं की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
Prada का फैशन शो और विवाद की शुरुआत: प्रादा के फैशन शो में क्या हुआ?
प्राडा, एक प्रसिद्ध इतालवी लग्जरी फैशन हाउस, ने अपने स्प्रिंग-समर 2026 मेन्स कलेक्शन को मिलान के फोंडाजियोने प्राडा के डिपॉजिटो में प्रदर्शित किया। इस शो में म्यूसिया प्राडा और राफ सिमंस द्वारा डिजाइन किए गए 56 लुक्स थे, जिनमें परंपरा और नवाचार का मिश्रण देखने को मिला। हालांकि, शो का मुख्य आकर्षण चमड़े के सैंडल थे, जो चार लुक्स में प्रदर्शित किए गए। इन सैंडलों की डिजाइन, जिसमें खुला पंजा, लटकी हुई पट्टियां, और चमड़े का रंग शामिल था, कोल्हापुरी चप्पलों से इतनी मिलती-जुलती थी कि भारतीय दर्शकों ने तुरंत इसकी पहचान कर ली।
प्राडा ने अपने शो नोट्स में इन सैंडलों को “लेदर सैंडल्स” के रूप में प्रस्तुत किया, बिना कोल्हापुरी चप्पलों या भारत का कोई उल्लेख किए। शो के दौरान ब्रांड ने इस प्रभाव का कोई उल्लेख नहीं किया। शो के निमंत्रण में शामिल एक “लेदर रिंग” भी कोल्हापुरी चप्पल के छल्ले की डिजाइन से प्रेरित प्रतीत हुआ। जब फैशन ब्लॉगर्स और भारतीय दर्शकों ने इस समानता पर सवाल उठाया तो इसने सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया, जहां उपयोगकर्ताओं ने प्राडा पर “सांस्कृतिक विनियोग” और “भारतीय शिल्प कौशल की चोरी” का और “भारतीय संस्कृति का व्यावसायिक उपयोग” आरोप लगाया। एक यूजर ने लिखा, “प्राडा ने कोल्हापुरी चप्पलों को बिना क्रेडिट दिए 1.2 लाख रुपये में बेचने की कोशिश की, जबकि हमारे कारीगर इसे 400 रुपये में बनाते हैं। यह सांस्कृतिक चोरी है।”
भारतीय प्रतिक्रिया और आलोचना
भारतीय फैशन समुदाय, कारीगरों, और राजनेताओं ने प्राडा की इस हरकत की कड़ी निंदा की। महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर (MACCIA) के अध्यक्ष ललित गांधी ने प्राडा को पत्र लिखकर इस मुद्दे को उठाया। उन्होंने अपने पत्र में लिखा, “कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक हैं और हजारों कारीगरों की आजीविका का आधार हैं, इस डिज़ाइन को उचित सम्मान, क्रेडिट या लाभांश के बिना कॉपी करना गलत है। हमें चिंता है कि इस डिजाइन को बिना उचित मान्यता या सहयोग के व्यावसायीकरण किया गया है।” उन्होंने “न्याय संगत सहयोग या उचित प्रतिपूर्ति” की मांग की।
साथ ही महाराष्ट्र के सांसद तथा कारीगर प्रतिनिधि धानंजय महाडिक ने बंबई उच्च न्यायालय में सिविल रिट याचिका का प्रस्तावित करने की जानकारी दी।
गांधी ने प्राडा से तीन मांगें की: पहला, डिजाइन की प्रेरणा को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना; दूसरा, कारीगर समुदायों के साथ सहयोग या उचित मुआवजे की संभावनाओं की खोज करना; और तीसरा, पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक अधिकारों का सम्मान करने वाली नैतिक फैशन प्रथाओं को अपनाना। इसके अलावा, बीजेपी सांसद धनंजय महादिक ने कोल्हापुरी चप्पल कारीगरों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मुलाकात की और GI अधिकारों की रक्षा के लिए कार्रवाई की मांग की।
सोशल मीडिया पर #SupportLocal और #NotYourKolhapuri जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे, जिसमें उपयोगकर्ताओं ने प्राडा की आलोचना की और स्थानीय कारीगरों का समर्थन करने का आह्वान किया। उद्योगपति हर्ष गोयनका ने ट्वीट किया, “प्राडा कोल्हापुरी चप्पलों जैसे उत्पादों को 1 लाख रुपये से अधिक में बेच रहा है। हमारे कारीगर इन्हें 400 रुपये में बनाते हैं। वे हारते हैं, जबकि वैश्विक ब्रांड हमारी संस्कृति पर नकदी कमा रहे हैं।”
देशव्यापी विरोध और सोशल मीडिया का बुलंद स्वर
भारत में जब यह सिलसिला वायरल हुआ, तो सोशल मीडिया पर ज़ोरदार आलोचना शुरू हो गई। नेटज़न्स ने इसे “सांस्कृतिक बहुलता की चोरी” (cultural appropriation) बताया और #KolhapuriChappals जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे।
“यह ₹300–₹1500 में बिकने वाले पारंपरिक चप्पल थे, जिन्हें प्रादा ने ₹1.2 लाख में बेचकर अपना बना लिया” – इस तरह की टिप्पणियाँ आम थीं।
ट्विटर और इंस्टाग्राम पर #PradaKolhapuri ट्रेंड होने लगा। कई यूजर्स ने कहा कि अगर प्रादा को भारतीय डिजाइन पसंद हैं, तो उसे स्थानीय कारीगरों को क्रेडिट देना चाहिए था।
Prada की प्रतिक्रिया
लगभग एक सप्ताह चले विरोध-प्रदर्शन और भारी आलोचना के बाद, प्राडा ने 27 जून 2025 को MACCIA के पत्र का जवाब दिया। प्राडा ग्रुप के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी हेड लोरेंजो बर्टेली ने लिखा, “हम स्वीकार करते हैं कि हाल ही में प्राडा मेन्स 2026 फैशन शो में प्रदर्शित सैंडल, सदियों पुरानी विरासत वाले पारंपरिक भारतीय हस्तनिर्मित फुटवेयर से प्रेरित हैं। हम इस तरह के भारतीय शिल्प कौशल के सांस्कृतिक महत्व को गहराई से समझते हैं।”
बर्टेली ने यह भी स्पष्ट किया कि ये डिज़ाइन अभी प्रारंभिक चरण में हैं और इन्हें व्यावसायीकरण के लिए अंतिम रूप नहीं दिया गया है। उन्होंने स्थानीय भारतीय कारीगर समुदायों के साथ “सार्थक संवाद” और सहयोग की इच्छा व्यक्त की। प्राडा ने कहा, “हम जिम्मेदार डिज़ाइन प्रथाओं के लिए प्रतिबद्ध हैं और स्थानीय कारीगरों के साथ सहयोग के लिए तैयार हैं।”
लोरेंजो बर्तेली (Corporate Social Responsibility प्रमुख, प्रादा) ने MACCIA के अध्यक्ष ललित गांधी को पत्र लिखा और कोल्हापुरी डिज़ाइन को उसके सांस्कृतिक महत्व के रूप में पहचानते हुए उचित सम्मान का आश्वासन दिया।
अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स और भारतीय शिल्प: पुराने विवाद और सांस्कृतिक विनियोग का व्यापक संदर्भ
यह पहली बार नहीं है जब वैश्विक फैशन हाउस पर भारतीय डिज़ाइनों को “बिना क्रेडिट” दिए उपयोग करने का आरोप लगा है। 2018 में Louis Vuitton ने राजस्थानी ब्लॉक प्रिंट को अपने बैग्स पर इस्तेमाल किया, लेकिन शुरू में किसी भारतीय कारीगर का नाम नहीं लिया। 2020 में Zara ने मध्य प्रदेश के आदिवासी डिजाइन को कॉपी करने का आरोप झेला। 2023 में क्रिश्चियन डायर के मुंबई शो और 2025 में गुच्ची द्वारा कांन्स में साड़ी को “गाउन” के रूप में प्रस्तुत करने जैसे मामले भी चर्चा में रहे। यह घटनाएं वैश्विक फैशन उद्योग में एक बड़े मुद्दे को उजागर करती हैं: पारंपरिक शिल्प को लक्जरी उत्पादों के रूप में पुनः पैकेज करना, बिना मूल कारीगरों को उचित श्रेय या मुआवजा दिए।
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस विवाद का एक सकारात्मक पहलू भी है। फैशन डिज़ाइनर शिरीन मान ने कहा, “प्राडा की सुर्खियों ने कोल्हापुरी चप्पलों को युवा उपभोक्ताओं के बीच फिर से लोकप्रिय बनाने में मदद की है।” Google ट्रेंड्स के अनुसार, इस विवाद के बाद कोल्हापुरी चप्पलों की खोज में वृद्धि हुई है, और स्थानीय खुदरा विक्रेताओं ने बिक्री में उछाल की सूचना दी है।
सांस्कृतिक उधार बनाम प्रशंसा या वैश्विक प्रतिबिंब – प्रेरणा या चोरी?
सांस्कृतिक उधार (Cultural Appropriation): जब कोई ब्रांड या समुदाय किसी दूसरी संस्कृति के तत्वों को बिना क्रेडिट दिए अपनाता है और उसका व्यावसायिक फायदा उठाता है।
उदाहरण: प्रादा द्वारा कोल्हापुरी डिजाइन का उपयोग, लेकिन शुरू में इसका जिक्र न करना।
सांस्कृतिक प्रशंसा (Cultural Appreciation): जब कोई संस्कृति के तत्वों को सम्मान के साथ अपनाता है और मूल निर्माताओं को श्रेय देता है।
उदाहरण: गुजराती कढ़ाई को Dior द्वारा अपने कलेक्शन में शामिल करना और स्थानीय कारीगरों के साथ सहयोग करना।
यह प्रादा का पहला ऐसा विवाद नहीं है; कई अंतर्राष्ट्रीय फैशन ब्रांड्स ने पिछले दशक में अनजान रूप से पारंपरिक डिज़ाइनों का उपयोग किया है ।
इस तरह की घटनाएं यह संकेत देती हैं कि फैशन उद्योग में “प्रेरणा” और “कॉपी” की बारीक सीमाएँ धुंधली हैं—विशेष रूप से जब कारीगर समाज दृष्टिगत नहीं होते।
क्या हो सकता है बेहतर समाधान?
स्थानीय कारीगरों के साथ सहयोग: ब्रांड्स को भारतीय शिल्पकारों के साथ सीधे काम करना चाहिए, ताकि उन्हें उचित मेहनताना मिले।
स्पष्ट क्रेडिट देना: अगर कोई डिजाइन किसी विशेष संस्कृति से प्रेरित है, तो उसे फैशन शो या प्रोडक्ट डिटेल में मेन्शन करना चाहिए।
सांस्कृतिक विशेषज्ञों की सलाह लेना: ब्रांड्स को अपने कलेक्शन से पहले सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करना चाहिए।
विशेषज्ञ और स्थानीय प्रतिक्रियाएं
हरश गोएंका (RPG समूह अध्यक्ष) ने कहा:
“भारतीय कारीगरों को नुकसान, जबकि वैश्विक ब्रांड हमारी संस्कृति से कमाई कर रहे हैं।”
धनेंद्र कुमार (पूर्व विश्व बैंक कार्यकारी) ने लोन में नोट किया:
“चूंकि प्रादा ने ‘कोल्हापुरी’ शब्द का उल्लेख नहीं किया, वे सांस्कृतिक स्वामित्व का monetisation कर रहे हैं।”
सबसे विवादास्पद घटना यह है कि स्थानीय कारीगरों में मिश्रित प्रतिक्रिया है—कुछ ख़ुश हैं क्योंकि इससे उनकी कला को वैश्विक मंच हासिल हो सकता है, जबकि अन्य न्याय की मांग करते हैं।
कानूनी और सांस्कृतिक निहितार्थ
भारत में koल्हापुरी चप्पल को जी.आई. द्वारा संरक्षित किया गया है, परन्तु यह संरक्षण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सीमित है। इस वजह से ब्रांड डिज़ाइन को “inspired by” कहकर कानूनी रूप से बच निकलते हैं।
कोल्हापुर सांसद द्वारा उच्च न्यायालय में याचिका संभावित कानूनी लड़ाई का संकेत देती है—जिससे पारंपरिक डिज़ाइन के संरक्षण को विदेशों में भी मान्य कराया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर WIPO जैसे निकायों द्वारा पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों (Traditional Cultural Expressions) की रक्षा के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन अभी व्यापक प्रभाव विकसित नहीं हो पाया है।
निष्कर्ष: सम्मान के साथ प्रेरणा लेना जरूरी
प्राडा और कोल्हापुरी चप्पल विवाद वैश्विक फैशन और स्थानीय शिल्प के बीच तनाव को दर्शाता है। यह मामला एक बड़ा सबक है कि वैश्विक ब्रांड्स को सांस्कृतिक प्रेरणा लेते समय संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। प्रादा द्वारा कोल्हापुरी चप्पलों के डिज़ाइन की अवहेलना एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगति को उजागर करता है जहाँ वैश्विक फैशन ब्रांड्स पारंपरिक कारीगरी को ‘inspiration’ के नाम पर उपयोग में लेते हैं। यह घटना हमें सिखाती है कि सांस्कृतिक विरासत का सम्मान और कारीगरों को उचित मान्यता देना कितना महत्वपूर्ण है। इस घटना ने देश में एक बहस शुरू की “केवल ज़िम्मेदार डिज़ाइन ही नहीं, बल्कि पारंपरिक कला को उसका सामाजिक-आर्थिक दर्जा और वैश्विक मान्यता देना भी ज़रूरी है”। प्राडा की स्वीकारोक्ति और सहयोग की इच्छा एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। भारतीय हस्तशिल्प को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलना अच्छी बात है, लेकिन उन कारीगरों को उचित श्रेय और आर्थिक लाभ मिलना चाहिए जो सदियों से यह कला संजोए हुए हैं। भारत में इस पारंपरिक हस्तशिल्प को अक्सर गुमनामी का सामना करना पड़ा है, और एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड से आ रही मान्यता इसमें सुधार की शुरुआत हो सकती है- ज़ाबर्दस्त पारदर्शिता और कारीगरों की भागीदारी के माध्यम से। भविष्य में, वैश्विक ब्रांडों को पारदर्शिता, सहयोग, और नैतिक प्रथाओं को अपनाने की आवश्यकता है ताकि सांस्कृतिक विनियोग के आरोपों से बचा जा सके। दूसरी ओर, इस विवाद ने कोल्हापुरी चप्पलों को वैश्विक मंच पर लाने में मदद की है, जो स्थानीय कारीगरों के लिए नए अवसर खोल सकता है।
अगर प्रादा जैसे ब्रांड्स भारतीय कारीगरों के साथ सीधे साझेदारी करें, तो यह एक Win-Win स्थिति होगी:
ब्रांड्स को ऑथेंटिक डिजाइन मिलेंगे।
स्थानीय कारीगरों को वैश्विक बाजार और बेहतर आय मिलेगी।
भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर सम्मान मिलेगा।
फैशन की दुनिया में सांस्कृतिक आदान-प्रदान तभी सार्थक होगा, जब यह सम्मान और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित हो।
अंत में: आगे की राह
यह विवाद फैशन उद्योग में एक चेतावनी है:
सायट्रल ज़िम्मेदारी (Corporate responsibility) के साथ पारंपरिक डिज़ाइनों का सम्मान करें।
डिज़ाइनर्स, ब्रांड्स और कारीगरों के बीच सम्मानजनक सहयोग और मुनाफ़ा बाँटने वाला मॉडल विकसित हो।
कारीगरों की पहचान को वैश्विक मंच पर उजागर करें, केवल प्रेरणा के रूप में नहीं, बल्कि कथात्मक और आर्थिक साझेदार के रूप में भी।
माना जा रहा है कि प्रादा द्वारा उठाया गया क़दम हालांकि देर से एक सकारात्मक शुरुआत हो सकता है। इससे युवा भारतीयों में पारंपरिक हस्तशिल्प के प्रति रुचि बढ़ी है, और परिधान उद्योग में “कुल्चरल रीजनिश” (cultural rejuvenation) की उम्मीद जग रही है।